Thursday 26 January 2012


खोया बचपन

बच्चे का बचपन खोया है
खेल खिलौने क्या होते हैं?

सारा भुवन घूमकर देखा 
नहीं हाथ में अन्न की रेखा 
कितनी उसने खाई गाली
फिर भी भरी न उसकी थाली



दो भी कौर खिला दे कोई
ऐसे अपने क्या होते हैं!

कौन सुनाये उसे कहानी?
माँ की आँखों में था पानी
घर छूटा क्या साथ रह गया 
सब कुछ तो फुटपाथ रह गया 

कोई उससे जाकर पूछे 
मीठे सपने क्या होते हैं

इन राहों पर छांह नहीं है
मजदूरी बिन राह नहीं है
कागज़ के कोमल अफ़साने
कहो भला वे कैसे जानें?

किरणों वाले क्या जानेंगे
तम-तहखाने क्या होते हैं?
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तुम्हारा चाँद, मेरा चाँद


एक चाँद तुम्हारी खिड़की के आसमान पर है
जो तुम्हे बेहद खूबसूरत लगता है
जिसे देखकर तुम्हे
तुम्हारी प्रेमिका याद आ जाती है

एक चाँद
मेरे भी खुले आसमान पर है
पर उसे देखकर 
भुखमरी के इस मौसम में 
मेरे  मुंह  से एक ही शब्द निकलता है,''रोटी''
मुझे रोटी याद आती है 

 चाँद को चाँद कहने के लिए
 ज़रूरी है पेट में रोटी    

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चुपके-से आधी रात में

मेघ भला कब आ गए
चुपके से आधी रात में?

पाती लिख-लिखकर सब हारे
मनमौजी न आया
कब चंपा को हिला गया
सारा आँगन महकाया

हवा खबरिया दे गयी
चुपके-से आधी रात में

पात न बोले, रात न बोली
ना बोली बीजुरिया
माधव सबको पिला रहा था
रस की भरी गगरिया

लाल चुनरिया भींग  गयी
चुपके-से आधी रात में 

ना आँगन में खुसर-पुसर
न बगिया में था शोर 
देख न पाया कोई कैसे 
आये बन के चोर
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Wednesday 25 January 2012

कचरे में रोटी
 
तुम कहते हो कि दुनिया , हो गयी है इतनी छोटी,
वह बालक ढूंढ रहा है कचरे में अपनी रोटी ?


सबकी मंजिल अमरीका, इंग्लॅण्ड और जापान,

उसको बटोरना ठहरा टूटा , फेंका सामान,
अब चन्दा पर भी बँगला बनवाने कि सब सोचें 
पर वह तो अपने पैरों के नीचे धरती खोजे

फिर भी न कोई शिकवा कि किस्मत पाई खोटी




दुधमुहों  को तो दूध नहीं, पर मिल जाता है मांड 
घुटनों चलने से पहले टांगें  होतीं   लाचार
खेलों के दिन जब ए तो खेल खा गयी भूख,
पानी भी साफ़ न मिलता,तन रहा है उनका सूख,

डाइपर के दिन में भी तो नीचे न जुटी लंगोटी,

शीशी-बोतल चुनता है,पन्नी कागज़ दिन-भर,
तन धूल भरा है सारा, कालिख  है चेहरे पर,
जिस देश का बचपन भूखा हो ना पूछो उसका हाल,
हल करते रह जाते हैं ,रोटी का कठिन सवाल,

ईमान-धरम खा जाये यह भूख ना होती छोटी,

बेमानी है आज़ादी,नाटक जनता का राज,
आहार मिले ना जब तो,झूठा है सारा साज,
ऊपर  का लेबेल कुछ  है,भीतर है  कोई माल,
जनसेवक ही राजा है, जनता है खस्ताहाल,

जनतंत्र के जाल में उलझी जनता जाती है लूटी.
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एक नाम

इतना आसन नहीं है
कराहते दिनों के दर्द को
सही-सही एक नाम दे देना
जब उस परम पीड़ा को
नाम लेकर पुकार लोगे
तो अपना नाम भूल जाओगे

अपना नाम कोई नहीं भूलता
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