Thursday 20 December 2012

गज़ल
 
 
दुल्हन बनी सडकों पर गरीबी खो जाती है
भगवान् आ रहे हैं, जनता दौड़ी जाती है
 
शब्दों को नहीं अपने को घिसा होगा उसने
तभी उसकी बातें यूं दिल में उतर जाती हैं
 
सच की तख्ती कब-कैसे गिरी, गायब हो गयी
अब तो सारी गलियां झूठ के घर जाती हैं
 
 
तुमसे तो बहुत अच्छी है तुम्हारी याद ही
तुम नहीं आते तुम्हारी याद जाती नहीं है
 
पेड़ों को जब पत्तों की ज़रुरत नहीं होती
हवा बुलाकर उनको अपने घर ले जाती है
 
एक पेड़ नहीं मिलता और उसपर दो पंछी
छत ही खरीदने में ज़िन्दगी निकल जाती है
 
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Saturday 15 December 2012






राजा बेटा 
 अब वह अडतीस पूरे करेगी 
चलते- फिरते
 दिमाग में एक फिल्म की तरह
अंकिता अपनी ही काया देखने लगती है 
देखती रहती है 
यह कौन है पैंट और कोट में?
हाथों में लैप टॉप का बैग लिए?
अंकिता नाम है इसका 
हठात कोई बात नहीं कर सकता मैडम से 
चेहरे पर मल्टीनेशनल कल्चर की छाप 
बता देती है कि कमी किस बात की?
पद , अपार्टमेंट, गाड़ी , बैंक-बैलेंस 
सबकुछ तो  है !
 
लेकिन  तुरंत ही 
अपने दिवास्वप्न में वह देखती है अपने गाल 
जो परिपक्व घीये-से रूखे हो गए हैं 
चलते-चलते हठात उसकी कार रुक जाती है 
आगे बढ़ने के लिए सड़क नहीं है 
डायवर्सन भी नहीं
अथाह समंदर है 
अचानक घुप्प अँधेरा हो जाता है 
सिर्फ काली लहरों का शोर 
सुनाई पड़ता रह जाता है 
 
बचपन से पिता कहते थे 
''ये मेरी बेटी नहीं , मेरी बेटा है''
माँ तो पुकारने ही लगी 
''मेरी राजा बेटा''
वह बन भी गयी बेटी से बेटा 
और बन गयी राजा 
 
पर अब ये ही शब्द डराने लगे हैं उसे 
उसे शिद्दत से महसूस होता है 
की वर्षों से शापा  जाता रहा उसे
हर दिन 
एक दिन में कई- कई बार 
 
पहले जो संबोधन 
एक चहकती हुई चिड़िया बना जाता था उसे 
आज वाही संबोधन
 शहतीरों का दर्द दे जाता है 
वह टूट- पिसकर
 धूल-मिटटी बन जाती है
अखबार के पन्नों में 
'वैवाहिक ' विज्ञापन देखते ही 
वह चीखना चाहती है 
''अरे! किसी को याद भी है की मैं बेटी हूँ?''
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